जगदीश यादव

elephant-1-340x200आमतौर पर ग्रहराज शनिदेव को लेकर तमाम तरह की भ्रांतियां है और लोगों में शनिदेव को लेकर इस कदर दहशत फैलाया गया है कि लोगों में उनके नाम से दहशत होती है। लेकिन ऐसा नही है। धर्मग्रन्थों को देखने पर पता चलता है कि  शनिदेव को न्याय के प्रतिमूर्ति भी हैं। वह कर्मफल दाता भी हैं और लोगों को संघर्ष कर सत्यपथ पर चलने के लिये मार्ग भी दिखाते हैं। कर्म को प्रधान मानने वालों पर वह सदैव खुश रहते हैं।  शनिदेव उर्जा के देव सूर्य तथा देवी छाया के पुत्र हैं। कई कारणों से इन्हें क्रूर ग्रह कहा जाता है। लेकिन कि शनि देव लोगों को उसके पाप और बुरे कर्मो का दण्ड प्रदान करते हैं। एक बार सूर्य देव के कहने पर देवो के देव भगवान शंकर ने शनि की उदंडता दूर करने के लिए उन्हें समझाना चाहा।  लेकिन शनि नहीं माने। उनकी मनमानी पर भगवान शंकर ने शनि देव पर प्रहार कर दिया।  भगवान शंकर के प्रहार से शनिदेव अचेत हो गए तब सूर्यदेव के पुत्र मोह जाग उथा और उन्होंने भगवान शंकर से शनि के जीवन की प्रार्थना की तत्पश्चात भगवान शंकर ने शनि को अपना शिष्य बनाकर उन्हें दंडाधिकारी बना दिया। शनि न्यायाधीश की भांति जीवों को दंड देकर भगवान शंकर का सहयोग करने लगे। एक समय शनि देव भगवान शंकर के धाम हिमालय पहुंचे। उन्होंने अपने गुरुदेव भगवान शंकर को प्रणाम कर उनसे आग्रह किया कि,  हे देवो के देव! मैं  आपकी राशी में आने वाला हूं अर्थात मेरी वक्र द्रष्टि आप पर पड़ने वाली है। शनिदेव की बात सुनकर भगवान शंकर हैरत हों गए और उन्होंने कहा, हे शनिदेव! आप कितने समय तक अपनी वक्र द्रष्टि मुझ पर रखेंगे।” शननिदेव ने कहा कि , ” कल सवा प्रहर के लिए आप पर मेरी वक्र द्रष्टि रहेगी। शनिदेव की बात सुनकर भगवन शंकर चिंतित हो गए और शनि की वक्र द्रष्टि से बचने के लिए उपाय सोचने लगे।” शनि की दृष्टि से बचने हेतु अगले दिन भगवन शंकर मृत्यु लोक आए। भगवान शंकर ने शनिदेव और उनकी वक्र दृष्टि से बचने के लिए एक हाथी का रूप धारण कर लिया। भगवान शंकर को हाथी के रूप में सवा प्रहर तक का समय व्यतीत करना पड़ा तथा शाम होने पर भगवान शंकर ने सोचा की अब दिन बीत चुका है और शनिदेव की दृष्टि का भी उन पर कोई असर नहीं होगा। इसके उपरांत भगवान शंकर वापस अपने स्थल कैलाश पर्वत लौट आए। भगवान शंकर प्रसन्न मुद्रा में जैसे ही कैलाश पर्वत पर पहुंचे उन्होंने शनिदेव को उनका इंतजार करते पाया। भगवन शंकर को देख कर शनिदेव ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। भगवान शंकर ने मंद मंद हंसते हुए शनिदेव से कहा ,शनिनिदेव आपकी दृष्टि का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ है। यह सुनकर शनि देव भी मंद-मंद  मुस्कराए और कहा, प्रभु मेरी दृष्टि से न तो देव बच सकते हैं और न ही दानव यहां तक की आप भी मेरी दृष्टि से बच नहीं सकें हैं। शनिदेव के कथन पर भगवान शंकर को हैरत हुआ। शनिदेव ने कहा, देवों के देव आप भी नहीं समझ सकें। मेरी ही दृष्टि के कारण आपको सवा प्रहार के लिए देव-योनी को छोड़कर पशु योनी में जाना पड़ा । यानी आपने हाथी बन गये। तो क्या मेरी वक्र दृष्टि आप नहीं पड़ी। फिर क्या था देवों के देव भगवान शंकर भी अपने इस शिष्य के न्याय व क्रम प्रधानता के कायल हों गये।

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