अशोक पाण्डेय

मीराबाई, सुकरात, ईसा मसीह या फिर भानुभक्त आचार्य सरीखे लोगों की प्रतिभा का पता यदि दुनिया को पहले ही पता चल गया होता तो शायद इतिहास कुछ और ही रहा होता। मगर शायद नियति को भी यह अभीष्ट नहीं रहा होगा। और यही वजह है कि इन तमाम मनीषियों को जीते जी वह सुकून नहीं मिल सका जिसके वे अधिकारी थे। प्रसंगवश भानुभक्त की ही बात चल पड़ी है। इनके अवदान को भारत या नेपाल के साहित्यकार भुला नहीं सकते। भानु जैसे लोग सदियों में पैदा होते हैं और सदियों तक उनकी आवाज गूंजती रहती है। भारत में जो काम गोस्वामी तुलसीदास ने किया था रामचरितमानस की रचना के जरिये, वही काम नेपाल में भानुभक्त आचार्य ने किया।

संस्कृत भाषा से रामायण को नेपाली भाषा में तब्दील करके उन्होंने न केवल एक महाकाव्य की रचना की वरन आम नेपाली जनमानस के लिये भी रामायण को समझने की राह सुगम बना दी। इस क्रम में नेपाल के आदिकवि कहे जाने वाले भानुभक्त ने बालकांड और उत्तरकांड के कुछ प्रसंगों का तत्कालीन समाज के साथ जो तार जोड़ा है वह आज भी प्रासंगिक है। दरअसल सफल और अमर कवि वही होता है जिसकी कल्पनाशीलता औसत लोगों से भिन्न होती है। कवि भविष्यद्रष्टा भी होते रहे हैं। तुलसी के कलियुग वर्णन को देखें या फिर भानुभक्त के बालकांड को पढ़ें तो बात और साफ हो जाती है। इंसानी छल-छद्म, सामाजिक विसंगतियों तथा स्त्रियों के बर्ताव या आचरण की जो तस्वीर उन्होंने पेश की है वह सर्वथा अमर है। लेकिन नेपाली साहित्य व नेपाली जनजीवन को भीतर से झांकने की कोशिश में जुटे इस महाकवि को भी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा था-यह जानकर ही दुख होता है। किसी गफलत के कारण ही सही तत्कालीन सरकार की कालकोठरी में भानुभक्त को जो दिन गुजारने पड़े थे वे किसी भी संवेदनशील प्राणी के लिये अत्यंत दुखदायी थे। फिर भी वाणी और कर्म पर संयम रखकर उन्होंने सरकारी कोप के समक्ष जो अग्निपरीक्षा दी तथा उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, उससे उनके भीतर का कवि और भी निखर उठा था। 1814 में जन्मे इस महापुरुष की दो सौवीं जयंती तो मनाई जा रही है, उनके सम्मान में सभाएं भी आयोजित हो रही हैं, हो सकता है कि कुछ पारितोषिक वगैरह भी घोषित किये जायं किंतु जीते-जी उन्हें नहीं पहचान पाने का दर्द शायद सबको कचोटता ही रहेगा। जीने की कला एक घसियारे से सीखने वाले भानुभक्त ने सबको एक संदेश जरूर दिया है- जीयो तो ऐसे जिसका कुछ मकसद हो। अर्थहीन, लक्ष्यहीन जिंदगी भी कोई जिंदगी है क्या? दो सौ साल बाद भी बरबस मुंह से निकल जाता है-आपके पीछे चलेंगी आपकी परछाइयां..।

 

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