दीपक कुमार दासगुप्ता

dipak das

लेखक प्रख्यात ज्योतिषी व भविष्यवक्ता हैं और समाजसेवा के साथ भारतीय जीवन बीमा निगम से भी जुड़े हैं।

महान मनीषी स्वामी रामकृष्ण परमहंस की एक प्रसिद्ध उक्ति है टाका – माटी आर माटी – टाका । यानी रुपया मिट्टी है और मिट्टी रुपया है। आज के दौर में भी इस बात की बड़ी प्रासंगिकता है। क्योंकि निस्संदेह धन या कालेधन पर रोक की बात अपनी जगह सही है। लेकिन यह बात भी गौर करने वाली है कि कालेधन का शोर मचा कर कहीं हम अनजाने में आर्थिक अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे। यह तो सभी जानते हैं कि रोटी – कपड़ा और मकान मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं हैं और अधिकार भी। अपनी इस मौलिक जरूरत को सुरक्षित रखने के लिए ही आदमी में संचय की प्रवृत्ति जागृत हुई। सरकारों ने भी इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। अब यदि संचय एक सीमा से ज्यादा हो जाए तो इसे जमाखोरी या कालेधन की संज्ञा दी जा रही है। बेशक धन का इस्तेमाल देश व समाज के हित में होना चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि सरकारी व उन क र्मचारियों की जिन्हें पे स्लिप के साथ तनख्वाह मिलती है उनकी आय को तो सरकार पैमाने पर माप सकती है। लेकिन दूसरे लोगों के मामले में क्या मापदंड अपनाया जाएगा। जिनकी आय का ज्ञात स्त्रोत नहीं है उनकी कमाई या जमा राशि का पता कैसे लगाया जाएगा। कालेधन के साथ बेनामी संपत्ति की बात की जाए तो सत्तर के दशक में कम्युनिस्ट यह प्रयोग कर चुके हैं। लेकिन स्थिति अब तक जस की तस बनी हुई है । आखिर इसके लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जाए। आज देश में कैशलेस बाजार व्यवस्था की बात की जा रही है। लेकिन देश की अधिसंख्य आबादी गांवों में बसती है जहां बैंक व एटीएम केंद्रों की संख्या नगण्य है। यह पैमाना क्या सभी जगहों पर समान रूप से कारगर हो पाएगा। हमारे देश खास गांवों में बड़ी आबादी ऐसे बुजुर्गों की है जो ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं। वे एटीएम व क्रेडिट का र्ड का इस्तेमाल करने में भी सक्षम नहीं है। जिस तरह की व्यवस्था सरकार लागू करने का सपना देख रही है, उसमें इन बुजुर्गों की क्या हालत होगी, यह शायद किसी ने नहीं सोचा है। तकनीक व प्रौद्योगिक जानकारी नहीं होने से ऐसे बुजुर्ग इस तरह के का र्ड के इस्तेमाल के लिए दूसरों पर निर्भर होंगे जिससे उनकी गोपनीयता प्रभावित होगी। वहीं बुजुर्गों के साथ होने वाले अपराधों की संख्या में भी वृद्धि की आशंका है। इसकी जिम्मेदारी आखिर किसकी होगी। यदि सरकार बैंकों में एक सीमा से ज्यादा की रकम जमा कराने वालों के खिलाफ का र्रवाई शुरू करती है तो  निश्चित रूप से इससे अदालतों पर मुकदमों का बोझ बढ़ेगा। जबकि देश की अदालतें पहले ही मामलों – मुकदमों के बोझ तले हैं। इससे देश में एक बार फिर लालफीताशाही को बढ़ावा मिल सकता है।  लगता है कि सरकार या विशेषज्ञों ने भी इन आशंकाओं की ओर से मुंह मोड़ रखा है।  हमें यह बात  गांठ बांध लेनी चाहिए कि कालेधन पर रोक और उनका इस्तेमाल राष्ट्र हित में तो ठीक है लेकिन इस बात को नजरअंदाज भी नहीं किया जाना चाहिए कि अनजाने ही कहीं हम आ र्थिक अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि इस मामले में पलों ने गलतियां की और सदियों ने सजा पाई वाली कहावत चरिता र्थ हो। इसलिए सरकार को हर पहलू पर गहन मंथन करना चाहिए।

 

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