देश भर में नोटबंदी का प्रभाव साफ देखा जा रहा है। देश के तमाम कोने से नोटबंदी पर तमाम तरह की बाते सुनने को मिल रही है। लेकिन जो एक बात समान्य है कि लोग यह जरुर कह रहें है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कालेधन के खिलाफ उठाया गया कदम तारीफ के लायक है लेकिन, उन्हें नोट बदलने की व्यवस्था को जमीनी स्तर पर कारगर कर अभियान को अंजाम देना चाहिए। जबकि देश में सियासत करने वाले व पीएम मोदी के घोर विरोधी पीएम के इस नीति को जन विरोधी करार दें रहें हैं। जाहिर है कि विरोधी हैं तो विरोध तो करेगें ही। जहां देश की आम जनता आर्थिक समस्या से दो-चार होते हुए देश के हीत के लिये तमाम तकलीफें सहकर एक सकरात्मक उम्मीद पाले हुए है कि कल उनका और देश का भविष्य बेहतर होगा। वहीं इस दौर में भी देश के तमाम नेता अपने आपको चमकाने की जीतोड़ कोशिश में लगें हुए हैं। देश में ऐसे कई नेता हैं जो नोटबंदी के बहाने खुद को प्रधानमंत्री के पद का आघोषित चेहरा बनाने के लिये हर वह तमाम कोशिश कर रहें हैं जो वह कर सकतें हैं। शायद यही कारण है कि भाजपा सरकार के विऱोध में तमाम विरोधी दलों के मैदान में आने के बाद भी भाजपा विरोधी खेमें में ही अदृश्य दरार के काऱण विरोधियों की दाल केन्द्र सरकार के खिलाफ ठीक से गल नहीं रही है। राजनीति के जानकार कहतें हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण मोदी के विऱोधी खेमें में एकता का अभाव होने के साथ अति महात्वाकांक्षा से मोदी सरकार के खिलाफ कोई खास प्रभाव जनमानस में नहीं पड़ रहा है। कारण कोई किसी से कम अपने को दिखाना ही नहीं चाह रहें है। ममता बनर्जी, अरबिन्द केजरीवाल, उमर अब्दुल्लाह, उद्धव ठाकरें ,अखिलेश यादव, मायावती, सीताराम येचूरी हों या फिर कोई और हस्ती हर कोई अपने आप को चमकाने व राजनीतिक तौर पर सुरक्षित रखने की कवायद में हैं। कथित भाजपा विरोधी खेमें में कोई भी चेहरा ऐसा नहीं है जो है जिसे इन नोताओं में से कोई अपना नेता चुन कर एक स्वर में उक्त नेता के स्वर से स्वर बुलंदकर नोदबंंदी पर ही मोदी सरकार को इस कदर घेर सके कि सरकार की सांस फूल जाए। वैसे आज के इस दौर में पीएम बनने का ख्वाब तो तमाम नेता देखने लगें हैं लेकिन अपने राज्यों में बातौर सीएम के रुप में खरे नहीं उतर सकें हैं। राज्य और देश चलाने में उतना ही फर्क होता जितना आकाश और जमीन के फासले में।
वैसे उक्त नेताओं के कतार में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव अगर होंते तो केन्द्र सरकार के खिलाफ उन्हें आगे रखकर मुहिम को कुछ समय तक अंजाम दिया जा सकता था। लेकिन आज भाजपा सरकार के खिलाफ जो चेहरें लामबद्ध हैं उनके केन्द्रीय नेतृत्व और क्षमता पर ही सवाल उठाया जा सकता है। अब रही बात कांग्रेस की तो देश की राजनीति में सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस कदर से उखड़ गई है कि उक्त पार्टी को अब देश के लोगों का विश्वास हासिल करने में लोहे के चने चबाने पड़ेगें। कांग्रेस के पास आज राहुल गांधी के अलावा कोई और चेहरा ही नहीं है जो आज पीएम मोदी के नेतृत्व को चुनौती दें सकें। लेकिन देश दुनिया को पता है कि अबतक राहुल गांधी भाजपा सरकार के खिलाफ लगभग हर जगह नाकाम ही साबित हुए हैं। कांग्रेस के लोकसभा में 45 और राज्यसभा में 60 सदस्य है। कांग्रेस को 2014 के आम चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा था। नोटबंदी के खिलाफ मोदी सरकार के विरोध में तनकर मुहिम छेड़ने वाली ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा में 32 और राज्यसभा में 12 सदस्य हैं। ममता ने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल का गठन किया था और पश्चिम बंगाल में तीन दशक से अधिक समय तक सत्ता में काबिज़ रहे वामपंथी मोर्चे को करारी शिकस्त दी । ऐसे में अगामी पीएम पद की दौड़ में ममता बनर्जी की टांग खिचने से कभी भी वाममोरचा पीछे नहीं हटेगी। कारण तृणमूल और वाममोरचा सांप व नेवला ही साबित होगें। अखिलेश यादव व मायावती के साथ भी कुछ उक्त तरह का ही रिश्ता है। उमर अब्दुल्लाह तो फिलहाल इस दौड़ से दूर हैं और वह नोटबंदी के सहारे ही अपनी पहंचान को बनाये रखना चाहते हैं तो अरबिन्द केजरीवाल को शायद देश के लोगों से किसी चमत्कार की उम्मीद है कि वह भी दिल्ली के सीएम के तर्ज पर देश के पीएम हों सकते हैं।