मफतलाल अग्रवाल

maphat lal agarwal

लेखक स्वतंत्रत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता  हैं

एक तरफ देश इक्कीसवीं सदी की ओर दौड़ लगा रहा है वहीं दूसरी ओर करोड़ों की संख्या में पीड़ित जनता प्रतिदिन मुंसिफ न्यायालय से लेकर देश की सुप्रीम कोर्ट तक न्याय पाने के लिये दौड़ लगा रही है। लेकिन उसे हर बार तारीख पर तारीख के दौर से गुजरना पड़ रहा है। जिससे सबको को न्याय देने वाली न्याय पालिका जजों के अभाव के चलते खुद न्याय पाने के लिये सिसक रही है। केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार हो या फिर कांग्रेस की सरकार हो अथवा किसी भी राज्य में किसी भी दल की सरकार हो जनता के रहनुमा होने के लम्बे चैड़े दावे या वायदे करने में कभी भी पीछे नहीं रही हैं। प्रत्येक सरकार ने वोट की चाहत में दलित, मुस्लिम, अल्पसंख्यक, पिछड़े, अगड़े, गरीब, मजदूर, व्यापारियों, उद्योगपतियों के हितों के लिये तमाम योजनाओं के नाम पर लाखों-करोड़ों हजार की राशि तो पानी की तरह बहायी है। लेकिन न्याय व्यवस्था के साथ लगातार खिलवाड़ किया जाता रहा है। यही कारण है कि जैसे-जैसे देश की आबादी बढ़ती गई वैसे-वैसे जजों की संख्या बढ़ने के स्थान पर लगातार घटती चली गई। वहीं मुकदमों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती गई जो अब करीब 2.20 करोड़ तक पहुंच गई है। आज से करीब तीन दशक पूर्व वर्ष 1987 में गठित लाॅ कमीशन ने न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों की संख्या को देखते हुए 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 18 से बढ़ाकर 50 करने की सन्तुति की थी। लेकिन इस रिपोर्ट को केन्द्र सरकार ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया। जबकि इन तीन दशकों में जनसंख्या विकराल रूप धारण करती गई बल्कि न्यायालयों की संख्या में भी इजाफा होता रहा। लेकिन जजों की संख्या बढ़ने के स्थान पर अवकाश ग्रहण करने और उनकी नयी भर्ती न होने से जजों की सीटें लगातार खाली होती गईं और मुकद्मों का बोझ न्यायालयों में लगातार बढ़ता गया। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर के भारतीय न्याय व्यवस्था की हालत को देखकर दिल्ली के विज्ञान भवन में उस समय आंसू छलक आये थे जब वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में एक कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। लेकिन उसके बाद भी स्थिति में कहीं कोई सुधार होता नजर नहीं आया।
हाल ही में लोकसभा में विधि एवं न्याय तथा इलैक्ट्रोनिक एवं सूचना तकनीक राज्यमंत्री पीपी चैधरी ने बताया कि 30 जून 2016 तक सुप्रीम कोर्ट में 62,657 मामले लम्बित हैं। उच्च न्यायालयों में 477 पद न्यायाधीशों के खाली हैं जबकि 10 लाख की आबादी पर देश के न्यायालयों में 18 जज कार्यरत हैं। जबकि वर्ष 2012 में 17,715 की जजों की संख्या को 20,502 कर दिया गया है। इसी तरह उच्च न्यायालयों में 986 जजों की संख्या को जून 2014 में 1079 कर दिया गया। जिला एवं अधीनिस्थ न्यायालयों में 31 दिसम्बर 2015 तक 4432 पद खाली पड़े थे। उच्च न्यायालयों में 31 दिसम्बर 2015 तक 38,70,373 मामले लम्बित पड़े हुए थे। जिनमें सर्वाधिक 9,18,829 मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लम्बित हैं। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 18 जजों की तैनाती 10 लाख की आबादी पर होने का दावा किया गया। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार उत्तर पद्रेश में सर्वाधिक 51 लाख (23 प्रतिशत), महाराष्ट्र 29 लाख (13 प्रतिशत), गुजरात 22.5 लाख (11 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल 13 लाख (6 प्रतिशत) इसके अलावा पिछले 10 वर्षों से उ.प्र. में 6.5 लाख, गुजरात में 5.20 लाख, महाराष्ट्र में 2.5 लाख मामले लम्बित हैं। भारतीय न्यायव्यवस्था की बदतर स्थिति का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 20 लाख से अधिक मामले महिलाओं के लम्बित हैं। वहीं 3 प्रतिशत मुकदमे सीनियर सिटीजन (वृद्ध) के लम्बित हैं। जबकि 38.30 लाख मामले पिछले पांच वर्षों से लम्बित हैं जो कुल मुकदमों का 17.5 प्रतिशत है। उच्च न्यायालयों में करीब 400 (39 प्रतिशत) पद खाली पड़े हैं। जिसमें सबसे बदतर हालत इलाहाबाद उच्च न्यायालय की है जहां करीब 50 प्रतिशत जज ही तैनात हैं। देश के अन्य उच्च न्यायालयों की हालत की बात करें तो सिक्किम, त्रिपुरा, मेघालय को छोड़़कर किसी भी राज्य में जजों की संख्या पूर्ण नहीं है। बिगड़ती न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये लाॅ कमीशन द्वारा वर्ष 2014 में 245वीं रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी गई। जिसमें पुनः लाख की आबादी पर 50 जजों की सन्तुति की गई। बल्कि उच्च न्यायालयों में बैकलाॅग को भरने के लिये अतिरिक्त जजों की तैनाती की भी सन्तुति की गई। लेकिन उक्त सन्तुति पर भी केन्द्र सरकार द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया। देश में निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय तक फरियादियों की भीड़ नजर आती है। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन हो या फिर दिल्ली का रेलवे स्टेशन हर जगह पीडि़तों का एक कारवां नजर आता है। जगह-जगह गरीब पीड़ित फरियादी रेलवे स्टेशनों, बस स्टैण्डों पर न्याय की उम्मीद में खुले आसमान के नीचे रात्रि को करवटें बदलते हुए नजर आयेंगे या फिर अन्य न्यायालयों से मिली अगली तारीख को लेकर भारतीय न्याय व्यवस्था को कोसते हुए अपने घरों को लौटते दिखाई देंगे। जबकि जमानत के इंतजार में लाखों कैदी न्यायालय के आदेश के इंतजार में पल-पल न्यायालयों की ओर टकटकी लगाते दिखाई दे जायेंगे। लेकिन उनकी तड़प उस समय गुस्से में तब्दील हो जाती है जब उन्हें मालूम होता है कि न्यायालय में आज जज ही नहीं बैठा है, वकीलों ने हड़ताल कर दी है। या फिर अगली तारीख पड़ गई है। न्यायालयों में तारीख पर तारीख का दौर कब खत्म होगा यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन देश की जनता को न्याय देने वाली न्याय व्यवस्था ही अपने प्रति हो रहे अन्याय को देखकर सिसक रही है कि क्या देश के नेता और सरकार उसके साथ क्या कभी न्याय कर पायेंगे।

 

 

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