तारकेश कुमार ओझा 

tarkesh yung 1

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

भूखे को भूख सहने की आदत धीरे – धीरे पड़ ही जाती है। वहीं पांत में बैठ  जी भर कर जीमने के बाद स्वादिष्ट मिठाइयों का अपना ही मजा है। शायद सरकारें कुछ ऐसा ही सोचती है। इसीलिए तेल वाले सिरों पर और ज्यादा तेल चुपड़ते जाने का सिलसिला लगातार चलता ही रहता है। यही वजह है कि हर सरकार के कार्यकाल में सरकारी कर्मचारियों की सुख – सुविधा का इंतजाम किसी न किसी तरह हो ही जाता है। कुछ दिन पहले तक देश की तंग माली हालत का रोना रोने वाली सरकार संगठित सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहें और सुख – सुविधाएं बढ़ाने के मामले में अचानक दरियादिल हो जाती है। बताया जाता है कि इस बढ़ोत्तरी से देश के खजाने पर इतने हजार करोड़ का बोझ बढ़ेगा। लेकिन साथ ही इन सब का बखान भी इस अंदाज मे किया जाता है मानो कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। क्या बात है। किसी बस अड्डे या रेलवे स्टेशन के सामने दस – दस रुपए की सवारी के लिए मारा – मारी करने वाले आटो व टोटो चालक जितनी कमाई आधी जिंदगी में न कर पाए उतनी बाबुओं की एक महीने की पगार होगी।एक दिन मैने ऐसे ही एक टोटो चालक को दस रुपए के लिए सवारी से झगड़ते देखा। दरअसल महिला सवारी अपने साथ मौजूद बच्चे के एवज में टोटो चालक को पैसे नहीं देना चाहती थी।लेकिन टोटो चालक इसके लिए अड़ा था। उसने महिला से पूछा कि क्या आप स्कूल में बच्चे को पढ़ाती हो तो इस पर पैसे ख र्च नहीं होते। फिर हमारे साथ यह क्यों। उसका साफ कहना था कि या तो महिला  उसे बच्चे केे लिए भी दस रुपए दे या  बगैर पैसे दिए चली जाए। उसे पर इस पर ऐतराज नहीं। आखिरकार महिला ने दोनों के बीस रुपए तो टोटो चालक के हाथ में पटक दिए। लेकिन देर तक बड़बड़ाती रही। टोटो चालक ने मन मसोस कर कहा कि .. भाई साहब हमारा ऐसा ही है। दिन भर मेहनत करते हैं , लेकिन पैसे के लिए पूरे दिन सवारियों के साथ झिकझिक करनी पड़ती है। दूसरी ओर बंगलों में ऐश की जिंदगी जीने वाले बाबुओं के खाते में महीने की पहली तारीख को ही अब पहले से ज्यादा मोटी रकम जमा हो जाया करेगी। फस्र्ट क्लास एसी में सफर करने वाले हमारे बाबू  अब सहजता पूर्वक विमान में यात्रा कर सकेंगे। आस – पास के पर्यटन केंद्रों तक सीमित रहने वाला बाबू वर्ग भी अब गोवा . ऊटी और मंसूरी  जैसे उन केंद्रों की सैर कर पाएगा जो पहले मुश्किल माना जाता था।।ऐसे में उस खबर की सच्चाई का भान अपने – आप ही हो गया जिसमें बताया गया कि देश के एक प्रदेश में झाड़ूदार की नौकरी के लिए अनेक डिग्रीधारियों ने आवेदन किया है। लगे हाथ एक और खबर सुनी कि जुलाई महीने में बैंक से लेकर सरकारी कर्मचारियों को पूरे 11 दिन की छुट्टी मिलने वाली है। यह भूखे को भूख और खाए को खाजा वाली बात ही तो है कि सरकार निजी क्षेत्रओं में दुकानें व व्यावसायिक प्रतिष्ठान 24 घंटे खुली रखने की अनुमति देने की सोच रही है।वहीं संगठित क्षेत्रों में छुट्टियां की श्रंखला दिनोंदिन लंबी होती जा रही है। जाहिर है इस नए बदलाव की गाज असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों पर ही गिरनी है।सवाल उठता है कि अगर निजी क्षेत्र के संस्थान 24 घंटे खुले रह सकते हैं तो यही फैसला सरकारी दफ्तरों पर क्यों न लागू हो। क्यों बैंक जैसे महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थान सात – सात दिन लगातार बंद रहते हैं।आखिर रोटेशन के आधार पर छुटटियां तो बैंक समेत सरकारी महकमों  में भी लागू हो सकती है।मौजूदा दौर में बचपन में सुना एक फिल्मी गीत निराशा के दौर में अक्सर जुबान पर चढ़ जाती है… एक ऋतु आए … एक ऋतु जाए… मौसम बदले न बदले नसीब…। समय के साथ देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में यह गीत सार्थक होता नजर आया। सचमुच बड़ी आशा और उ म्मीद के साथ हम सरकारें बदलते हैं। लेकिन करोड़ों लोगों की जिंदगी में क्या सचमुच  कुछ बदलता है। पिछले कुछ सालों के घटनाक्रों को देख कर मैं सोचता हूं कुछ महीनों में आखिर क्या बदला। वहीं कश्मीर पर आतंकवादी हमला, जवानों की शहीद होना, पाकिस्तान में  सजी दाऊद इब्राहिम की रहस्यमय दुनिया। सब कुछ वैसा ही तो है।

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