मुरली चौधरी
घर-आंगन में खेलकर बीता अपना बचपन ।
बचपन के दिन रहते थे हम स्वछन्द मगन ।
आंगन से झाँक कर, देखा था नीला गगन ।
आंगन ही तो था, बचपन का प्यारा वतन ।
पंतग, डोर, लटाई और लट्टू था अपना धन ।
खेल-कूद, उठा-पटक में ही लगता था मन ।
लौटा दे कोई मेरा वह आंगन वाला बचपन ।
लौटा दे कोई बचपन के उमंग और धड़कन ।
लौटाने वाले को “मुरली” का सौ बार नमन ।
बचपन को ढूढू कस्तुरी-मृग-सा मैं वन-वन ।