तनवीर जाफ़री

लेखक देश के वरीय स्तम्भकार हैं।

लोक सभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पेश करते हुए विगत फ़रवरी माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने भाषण में देश के प्रशासनिक अधिकारियों को ‘बाबू ‘ शब्द से संबोधित कर उन्हें नीचा दिखाने की जो कोशिश की गयी थी वह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। ग़ौर तलब है कि प्रधानमंत्री ने संसद में यह फ़रमाया था कि ‘ सब कुछ बाबू ही ये करेंगे? आई ए एस बन गया मतलब वो फ़र्टिलाइज़र का कारखाना भी चलाएगा,आई ए एस हो गया तो वो केमिकल का कारखाना भी चलाएगा, आई ए एस हो गया वो हवाई जहाज भी चलाएगा। ये कौन से बड़ी ताक़त बना के रख दी है हमने? बाबूओं के हाथ मे देश देकर के हम क्या करने वाले हैं? हमारे बाबू भी तो देश के हैं, तो देश को नौजवान भी तो देश का है। हम हमारे देश के नौजवानों को जितना ज्यादा अवसर देंगे, मुझे लगता है उसको उतना ही लाभ होने वाला है।’ प्रधानमंत्री के इस संबोधन के बाद अब पिछले दिनों वरिष्ठ भाजपा नेता व साध्वी उमा भारती द्वारा उन्हीं प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध जमकर अपशब्द इस्तेमाल किये गए हैं । उमा भारती ने कहा, “आपको नहीं पता ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) कुछ नहीं होती, चप्पल उठाने वाली होती है. चप्पल उठाती है हमारी। हम लोग ही राजी हो जाते हैं उसके लिए. आपको क्या लगता है कि ब्यूरोक्रेसी नेता को घुमाती है. नहीं। पहले अकेले में बात हो जाती है और फिर ब्यूरोक्रेसी फाइल उठाकर लाती है. ग्यारह साल तक मैं मंत्री रही हूं, मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रही हूं। पहले हमसे बात होती है, फिर फाइल प्रोसेस होती है। उसके बाद फाइल जाती है.” ये सब फालतू की बातें हैं कि ब्यूरोक्रेसी घुमाती है. ब्यूरोक्रेसी घुमा ही नहीं सकती. उनकी औकात क्या है? हम उनको तनख्वाह दे रहे हैं। हम उनको पोस्टिंग दे रहे हैं। उनकी कोई औकात नहीं है। असली बात तो यह है कि हम ब्यूरोक्रेसी के बहाने अपनी राजनीति साधते हैं.” इनके अलावा भी अनेक राजनेता समय समय पर देश की ब्यूरोक्रेसी के विरुद्ध अपनी भड़ास निकालते रहे हैं। जिस समय प्रधानमंत्री ने प्रशासनिक अधिकारियों को संसद में ‘बाबू’ (क्लर्क ) कहकर संबोधित किया था उसी समय प्रशासनिक अधिकारियों के राष्ट्रीय संगठन द्वारा रोष व्यक्त किया गया था। अब उमा भारती ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उससे तो गोया इन अधिकारियों के अपमान की इंतेहा ही हो गयी। देश के लोकतंत्र के जिन चार स्तंभों की बात की जाती है उनमें जहां पहला स्तंभ विधायिका है वहीं दूसरा स्तंभ कार्यपालिका का है जोकि विधायिका द्वारा बनाए गए क़ानूनों को लागू करती है। इसी प्रकार तीसरा स्तंभ न्यायपालिका को कहा जाता है जिसका काम क़ानूनों की व्याख्या करना व इनका उल्लंघन होने पर सज़ा का प्रावधान करना है। कार्यपालिका के अंतर्गत सर्वोच्च सेवाओं के रूप में भारतीय विदेश,प्रशासनिक,राजस्व व पुलिस सेवाओं को जाना जाता है।इनके अंतर्गत चयनित होने वाले युवाओं को अन्य सरकारी सेवाओं की तुलना में सबसे अधिक ज्ञान हासिल करना होता है। स्नातक करने के बाद प्रारंभिक परीक्षा,मुख्य परीक्षा और कठिन साक्षात्कार में सफलता के बाद इनका उच्चस्तरीय प्रशिक्षण ही इन्हें इस योग्य बनाता है कि वे विधायिका द्वारा बनाए जाने वाले क़ानूनों व सरकारी नियमों व दिशा निर्देशों को अमली जामा पहना सके। जबकि दुर्भाग्यवश विधायिका के लोगों को किस विषय का कितना ‘ज्ञान’ होता है इसका उल्लेख करने की ज़रुरत ही नहीं ,यह पूरा देश भली भांति जानता है। यही अधिकारी जिन्हें प्रधानमंत्री जी ‘बाबू’ कहकर और उमा भारती ‘चप्पल ‘ उठाने वाला कहकर संबोधित करते हैं इसी वर्ग के लोग हमेशा इन्हीं ‘विधायिका’ के लोगों के लिये संकट मोचक बने हैं। इन नामों की हालाँकि सूची बहुत लंबी है परन्तु कुछ नामों का ज़िक्र करना यहाँ ज़रूरी है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान विदेश मंत्री जय शंकर पूर्व आई एफ़ एस इसी ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा रहे। आर के सिंह, हरदीप सिंह पुरी,अर्जुन राम मेघवाल,तथा सोम प्रकाश जैसे नेता जो आज नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ा रहे हैं ये सभी देश में ‘बाबू गीरी’ कर चुके हैं। इनके अतिरिक्त यशवंत सिन्हा,नटवर सिंह,मीरा कुमार,मणिशंकर अय्यर,अजित जोगी,सैय्यद शहाबुद्दीन,ओ पी चौधरी,सतपाल सिंह,अलफॉन्स कन्नाथनम,अश्वनी वैष्णव,राम चंद्र प्रसाद सिंह,अश्वनी वैष्णव,उदितराज,अरविन्द केजरीवाल जैसे अनेक लोगों ने समय समय पर ‘बाबूगीरी ‘ छोड़ विधायिका में प्रवेश कर अपनी योग्यता व क्षमता का परिचय दिया है। अभी कुछ दिनों पूर्व ही 1988 बैच के प्रशासनिक अधिकारी (बाबू ) अरविंद कुमार शर्मा को उनकी ‘बाबूगीरी’ से त्यागपत्र दिलवा कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में विधान परिषद् सदस्य व उत्तर प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बनाकर सक्रिय किया गया यहाँ तक कि उनके उत्तर प्रदेश का उप मुख्यमंत्री बनने की भी चर्चा चली। उपरोक्त समस्त लोगों की योयता यही थी कि उन्होंने ‘बाबूगीरी ‘ के अपने दायित्वों को बख़ूबी निभाया था। इससे स्पष्ट है कि प्रशासनिक सेवाओं के ‘बाबू’ तो जब चाहें तब राजनीति में सक्रिय होकर विधायिका का हिस्सा बन मंत्री,मुख्यमंत्री,सांसद,विधायक कुछ भी बन सकते हैं परन्तु विधायिका के किसी सदस्य के लिये ‘बाबू ‘ बनने का देश में शायद ही कोई उदाहरण मिलता हो। कम से कम मैंने तो नहीं सुना। वैसे भी जब जब देश के किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होता है और ‘विधायिका ‘ नदारद रहती है उस समय यही ‘बाबू राज्य की व्यवस्था की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ज्ञान व अनुभव की बदौलत ही संभालते हैं। परन्तु यह भी सच है कि इसी कार्यपालिका में अनेक धन लोभी व चाटुकार प्रवृति के लोग भी शामिल हैं जिनकी वजह से राजनैतिक लोगों को इनके लिये इस तरह के भद्दे शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा है। जवाबदेही की कमी,भ्रष्टाचार तथा लापरवाही के भी अनेक प्रमाण मिलते रहते हैं। परन्तु इनका अर्थ यह तो क़तई नहीं कि एक अति शिक्षित व प्रमाणित योग्यता प्राप्त वर्ग के अधिकारियों को संसद में या मीडिया के समक्ष सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाए ? वह भी उस वर्ग के द्वारा जिनकी अपनी शिक्षा व डिग्रियां ही विवादित व संदिग्ध हों ? ज़रूरत इस बात की है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये लोकतंत्र के चारों स्तंभ न केवल भ्रष्टाचार,लोभ,चाटुकारिता,दंडवत व ग़ैर ज़िम्मेदारना हरकतों से बाज़ आयें बल्कि अपनी ज़िम्मेदारी व कर्तव्यों का पूरे दायित्व के साथ निर्वाहन करें। तथा विधायिका के लोग भी अपनी शिक्षा,योग्यता व अपने ज्ञान को मद्देनज़र रखते हुए ही देश के उच्च पदों के लिये चयनित किये गये अधिकारियों पर उँगलियाँ उठाएं। देश इस समय अनेक अभूतपूर्व चुनौतियों से जूझ रहा है। यह समय नहीं कि मंहगाई,बेरोज़गारी,तथा धार्मिक,जातिगत व सामाजिक मतभेदों का सामना कर रहे देश को ‘बाबू ‘ बनाम ‘बाबा ‘ की तकरार में उलझाने की कोशिश की जाये।

 

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