राजनीतिक रंग से ओतप्रोत चाबी रिंग की व्यापक धूम

जगदीश यादव
कोलकाता। दिल्ली के तख्त पर किस पार्टी का राज होगा यह तो मतगणना परिणाम के बाद ही पता चलेगा। लेकिन इस राज्य में भी चुनावी पारा गर्म है। चुनाव करीब आते ही चुनाव प्रचार सामग्री बेचने वाले दुकानदार सक्रिय हो जाते हैं। इस बार भी उन्होंने टोपी, टी-शर्ट, झंडे, चाबी के छल्ले जैसी चुनाव सामग्री से अपनी दुकानें भर ली है। लेकिन सबसे खास बात तो यह है कुछ प्रचार सामग्री इस तरह का है जो लोगों की जेब तक आसानी से पहुंचाया जा सके। आई क्रियेटीव के मालिक इम्तियाज अजीज ने बताया इस बार चुनावी प्राचर सामग्री में सबसे ज्यादा मांग चाबी के छल्ले यानी चाबी की रिंग की बतायी जा रही है। कारण यह प्रचार सामग्री काफी सस्ता व ज्यादा दिनों तक टिकने वाला होता है। कम पैसे में उक्त चुनाव प्रचार सामग्री मतदाताओं के पास इतना सुरक्षित रहता है जितना कि लोग अपना किमती सामान सुरक्षित रखते है। महानगर कोलकाता में कुछ दुकानदार 50 फीसदी तक छूट दे रहे हैं तो कुछ पांच के साथ एक फ्री वाला ऑफर दे रहे हैं। ऐसे में तृणमूल, भाजपा, कांग्रेस से लेकर वामपंथी दलों के चुनाव चिन्ह व प्रत्याशियों के चेहरे वाले चाबी की रिंग का जबरदस्त धूम है। इम्तियाज अजीज ने बताया कि वह लोग विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के लोगों से आर्डर ले रहें हैं और चाबी की रिंग बना रहे है। इम्तियाज अजीज के अनुसार 1000 हजार चाबी के छल्ले का आर्डर देने पर प्रति रिंग का दाम 10 रुपये पड़ रहा है। लेकिन कम बनवाने पर खर्च ज्यादा आ रहा है। ऐसे में राजनीतिक रंग में रंगे चाबी रिंग के मामले में तृणमूल का घास फूल व भाजपा के कमल के सबसे ज्यादा आर्डर मिल रहे है। उक्त चाबी रिंग में चुनाव निशान के साथ ही प्रत्याशी, राजनीतिक पार्टी प्रमुख की तस्वीरों की व्यापक मांग है। महानगर के मैदान इलाके के एक व्यवसायी ने बताया कि मांग देखते हुए हमने अतिरिक्त कच्चा माल मंगा लिया है। काम के लिये अतिरिक्त कारीगर रखने पड़ रहे है। मामले पर एक मनोविद डा. एस. सरकार का मानना है कि यह चाबी का रिंग एर एक व्याक्ति की जरुरत होती है और इसे लोग पाकेट में सम्भाल के रखते हैं। व्यवसायी इस मनोविज्ञान को समझते है और इस तरह की प्रचार सामग्री कम पैसे में ज्यादा प्रचारित होती है। वहीं आर्थिक मामले एक जानकार ने नाम की गोपनियता पर कहा कि चाबी का रिंग प्रचार प्रसार के लिये सबसे सस्ता व टिकने वाला सामान होता है जो आर्थिक तौर पर ज्यादतर लोगों के बजट में आ जाता है।

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